Thursday, April 30, 2020

'क्रांतिकारी संत श्री गुरु रविदास जी'

‘क्रांतिकारी संत श्री गुरु रविदास जी’
  संसार में संतों का स्थान सबसे ऊँचा और श्रेष्ठ होता है, मनुष्य ही नहीं देवता भी संतों को अपने से श्रेष्ठ मानते हैं। पर समाज में सचे संत कम ही मिलते हैं। समाजी इच्छाओं  को मारकर ही मनुष्य संतों की श्रेणी में आता है। मीरा के गुरु, कबीर के समकालीन, सर्ववंदनीय संत श्री रविदास का नाम संसार के संत जगत में सूर्य की भांति प्रकाशमान है। इन्होंने इस बात को प्रमाणित कर दिखाया की प्रभु की भक्ति में जातपात का भेदभाव नहीं किया जा सकता है। बल्कि अपने ऊँचे कर्मों के साथ ही मनुष्य परमात्मा से मेल कर सकता है। ईश्वर को प्राप्त करना किसी एक वर्ग या जाति का अधिकार नहीं है। बेशक संत रविदास का जन्म गरीब परिवार में हुआ पर उन्होंने अपने तप से समाज में पुजनीय स्थान प्राप्त किया। जैसे कहा जाता है कि जब-जब संसार में धर्म को खतरा हुआ और अधर्म ने कहर ढाया उस समय परमात्मा को किसी न किसी रूप में धरती पर आना पड़ा। चाहे वे कोई भी रूप हो। ऐसे ही 15बीं शताब्दी में धरती पर जुलम-अत्याचार इतना बढ़ गया था कि मनुष्य—मनुष्य के साथ नफरत करने लग गया था, इंसान छोटी-छोटी जातियों में बंट गऐ थे और बड़ी जाति के लोक छोटी जाति के लोगों से नफरत करने लग गए थे अर्थात उनकी परछाई से भी डरने लगे थे। तब उस समय प्रभु ने जुल्मों का नाश करने और इंसानों के दुखों का निपटारा करने के लिए इंसान रूप में काशी में प्रभु ने जन्म लिया। भारत में सदियों से अनेक महान संतों ने जन्म लेकर इस भारतभूमि को धन्य किया है जिसके कारण भारत को विश्वगुरु कहा जाता है और जब जब हमारे देश में ऊंचनीच, भेदभाव, जातपात, धर्म भेदभाव अपने चरम अवस्था पर हुआ है तब तब हमारे देश भारत में अनेक महापुरुषों ने इस धरती पर जन्म लेकर समाज में फैली बुराईयों, कुरूतियों को दूर करते हुए अपने बताये हुए सच्चे मार्ग पर चलते हुए भक्ति भावना से पूरे समाज को एकता के सूत्र में बांधने का काम किया है इन्हीं महान संतो में संत गुरु रविदास जी का भी नाम आता है। रविदास भारत में 15वीं शताब्दी के एक महान क्रांतिकारी संत, दर्शनशास्त्री, कवि, समाज-सुधारक और ईश्वर के अनुयायी थे। गुरू रविदास जी का जन्म 1433 में श्री गोवर्धन पूरा काशी, माध पूर्णिमा को रविवार, श्री संतोख और माता कलसा के घर हुआ। चमार कुल में हुआ था। कईं इतिहासकार इनका जन्म मंडूर गाँव मानते हैं पर खोज-पड़ताल के उपरांत इनका जन्म गोवर्धन पूरा ही साबित हुआ है।
    चौदह सौ तैंतीस की माघ सुदी पन्द्रास।
    दुखियों के कल्याण हित,प्रगटे श्री रविदास।।   
    रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे। उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे। प्रारम्भ से ही रविदास जी बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रविदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से अलग कर दिया। रविदास जी पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग झोपड़ी बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे। इनकी गरीबी को देखकर भगवान साधू का रूप धारण करके आए और इनको पारस पत्थर दिया जिसे गुरु रविदास ने लेने से इनकार कर दिया, साधू इनकी कुटिया में पारस छोडकर चला गया। कुछ समय के पश्चात उनकी कुटिया में आए, देखा कि वहीं पड़ा था। उनके भाव इन पंक्ति में साफ़ देखे जा सकते हैं:-
    हरि सा हिरा छाडि के, करै आंन की आस।       
     ते नर दोजक जाहिगे, सति भाखै रविदास।।
    और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे। उनके समय में शुद्रों (अस्पृश्य) को ब्राह्मणों की तरह जनेऊ, माथे पर तिलक और दूसरे धार्मिक संस्कारों की आजादी नहीं थी। संत रविदास एक महान व्यक्ति थे जो समाज में अस्पृश्यों के बराबरी के अधिकार के लिये उन सभी निषेधों के खिलाफ थे जो उन पर रोक लगाती थी। उन्होंने वो सभी क्रियाएँ जैसे जनेऊ धारण करना, धोती पहनना, तिलक लगाना आदि निम्न जाति के लोगों के साथ शुरु किया जो उन पर प्रतिबंधित था। ब्राह्मण लोग उनकी इस बात से नाराज थे और समाज में अस्पृश्यों के लिये ऐसे कार्यों को जाँचने का प्रयास किया। हालाँकि गुरु रविदास जी ने हर बुरी परिस्थिति का बहादुरी के साथ सामना किया और बेहद विनम्रता से लोगों का जवाब दिया। अस्पृश्य होने के बावजूद भी जनेऊ पहनने के कारण ब्राह्मणों की शिकायत पर उन्हें राजा के दरबार में बुलाया गया। वहाँ उपस्थित होकर उन्होंने कहा कि अस्पृश्यों को भी समाज में बराबरी का अधिकार मिलना चाहिये क्योंकि उनके शरीर में भी दूसरों की तरह खून का रंग लाल और पवित्र आत्मा होती है संत रविदास ने तुरंत अपनी छाती पर एक गहरी चोट की और उस पर चार युग जैसे सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर और कलयुग की तरह सोना, चाँदी, ताँबा और सूती के चार जनेऊ खींच दिया। राजा समेत सभी लोग अचंभित रह गये और गुरु जी के सम्मान में सभी उनके चरणों को छूने लगे। राजा को अपने बचपने जैसे व्यवहार पर बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई और उन्होंने इसके लिये माफी माँगी। गुरु जी ने सभी माफ करते हुए कहा कि जनेऊ धारण करने का ये मतलब नहीं कि कोई भगवान को प्राप्त कर लेता है। इस कार्य में वो केवल इसलिये शामिल हुए ताकि वो लोगों को वास्तविकता और सच्चाई बता सके। गुरु जी ने जनेऊ निकाला और राजा को दे दिया इसके बाद उन्होंने कभी जनेऊ और तिलक का इस्तेमाल नहीं किया। इनका मानना है:-
            रविदास जन्म के कारनै, हौत न कोई नीच।     
            नर कू नीच करि डारि है, ओंछे क्रम को कीच।।
      कोई भी व्यक्ति छोटी जाति से जन्म लेने से छोटा या ऊँची जाति में जन्म लेने से ऊँचा नहीं हो सकता बल्कि कर्मों से ही छोटा या बड़ा होता है। उन्होंने यह भी कहा है कि उच्च कुल या जाति में जन्म लेना ही तो वे पुजनीय नहीं है बल्कि अपने अच्छे कर्म से ही पुजनीय हो सकता है:-   
             रविदास ब्राह्मण, मति पूजिए, जह होवे गुणहीन। 
              पूजिहि चरन चण्डाल के, जह होवे गुण परवीन।।     
  धर्मों के पलड़े में इंसानियत को बांट कर कुछ कट्टरपंथी भ्रम की स्थिति पैदा कर रहे थे। सूफी संतों की तरह श्री गुरु रविदास जी ने उत्पीड़ितों के घावों को सहलाते हुए उन्हें हिन्दू मुस्लिम एकता का संदेश दिया :- 
      मुसलमान से कर दोस्ती हिन्दुअन से कर प्रीत।
      रविदास ज्योति सब राम की, सभी हैं अपने मीत।
  इनकी नजर में कोई भी धर्म छोटा-या बड़ा नहीं था। सभी का रास्ता एक ही मंजिल पर जाकर मिलता है। इसी सर्वधर्म सम भाव को समझाते उन्होंने कहा :-
        रविदास हमारो राम जी, सोई हैं रहमान,
       काशी जानी नहीं दोनों एकै समान। 
    गुरु रविदास जी जात-पात, भेदभाव और ऊंच नीच के घोर विरोधी थे। उनकी दृष्टि में वर्ग और वर्ण कृत्रिम, और काल्पनिक हैं जो कर्मकांडियों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए बनाए हैं। जब तक इनसे छुटकारा नहीं मिलता व्यक्ति उन्नति नहीं कर सकता।
    गुरु जी ने सर्वप्रथम आजादी का नारा बुलंद किया। कर्म व ऊंच नीच के जाति अभिमान में डूबे कर्मकांडियों और जाति विभेद के कारण निर्बल हुए समाज को चेताया कि वे शासकों के गुलाम हैं और गुलामों का अपना धर्म नहीं होता। उन्होंने मुक्ति का संदेश देते हुए कहा :-
       पराधीन का दिन क्या, पराधीन वेदीन,
       रविदास दास पराधीन को सभी समझे हीन।
       पराधीनता पाप है, जान लेहु मेरे मीत।
       रविदास दास पराधीन से, कोई न करे प्रीत।
      रविदास जी जाति व्यवस्था के सबसे बड़े विरोधी थे उनका मानना था की मनुष्यों द्वारा जातिपाती के चलते मनुष्य मनुष्य से दूर होता जा रहा है और जिस जाति से मनुष्य मनुष्य में बटवारा हो जाये तो फिर जाति का क्या लाभ ? 
     जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
      रैदास मनुष ना जुड़ सके, जब तक जाति न जात।।
     रविदास जी के समय में जाति भेदभाव अपने चरम अवस्था पर था जब रविदास जी के पिता की मृत्यु हुई तो उनके दाह संस्कार के लिए लोगों की मदद मांगने पर भी नहीं मिलती हैं लोगों का मानना था कि वे शुद्र जाति के हैं और जब उनका अंतिम संस्कार गंगा में होगा तो इस प्रकार गंगा भी प्रदूषित हो जाएगी जिसके कारण कोई भी उनके पिता के दाहसंस्कार के लिए नहीं आता है तो फिर रविदास जी ईश्वर का प्रार्थना करते है तो गंगा में तूफान आ जाने से उनका पिता की मृत शरीर गंगा में विलीन हो जाता है। श्री गुरु रविदास जी ने अपनी वाणी में लोगों को मानवता के प्रति प्रेम का संदेश दिया है कि सब मनुष्य एक समान हैं हमें एक ही ईश्वर ने बनाया है और सभी का शरीर एक जैसे तत्वों से बना है तो फिर छोटा बड़ा नहीं है। श्री गुरु रविदास जी के अनुसार:-
    एक माटी के सभ भांड़े, सबका एकौ सिरजनहारा,
   ‘रविदास’ व्यापै एकौ घट भीतर, सब की एकै घड़े कुम्हारा।।
  श्री गुरु रविदास जी ने स्पष्ट कहा है कि जन्म और मृत्यु के बारे में कोई नहीं बता सकता कि जीव ज्योति कब जगेगी और कब बुझेगी। इनका स्पष्ट सिद्धांत जीवन सार श्रेष्ठ और अच्छे कर्मों पर आधारित है। हम अलग-अलग बेष बदलते है पर प्रभु भक्ति का बास्तविक भेद जानने का कोशिश नहीं करते:-
    भेष लियो पै भेद न जानियो,
     इम्रित लेइ विखै सौ सानयौ,
     काम क्रोध में जन्म गंवायो,
    साध संगति मिलि राम न गायौ।
   श्री गुरु रविदास जी 120 बर्ष तक लोगों को अपनी वाणी और प्रवचनों से निहाल करते रहे। इनकी भक्ति और प्रेम को देख कर कई महापुरुष उनकी महिमा गाने लगे। गुरु रविदास किसी एक महजब के रहबर नहीं हैं बल्कि समस्त प्राणी इनकी वाणी को मानते और उन्के लिए प्ररेणा-स्रोत हैं। उन्होंने सच ही कहा है कि ‘मन चंगा ते कठोती में गंगा’। शुद्द मन में ही ईश्वर वास करते हैं। माध महीना आते ही संत श्री गुरू रविदास जी के अनुयायी उनके प्रकाश दिवस की तैयारियों में लीन हो जाते हैं।
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                                                 (डॉ. चंचल भसीन)

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