Wednesday, March 25, 2015

एहसास ( डॉ. चंचल भसीन )

          एहसास
ज़िंदा होने दा एहसास होना चाहिदा
जिसकरी लिखन लगनीं
माहनू पर शंगारक कवता
जेह्डा छल-छलिद्दर/कपट, झूठ-जूठ, मार-कटाई,
हिंसा-भ्रष्टाचार कन्नै भरे भरोचे दा ऐ
बड़ा शैल लगदा,
दिखने गी
सभनें गी अपनी बक्खी खिचदा ऐ,
मनमोह्दा 
सारेंगी अपने चबक्खै बठाई रखदा ऐ
जिसलै उसदा मुआंदरा तुआरनियां,
सारी खूबियें कन्नै
ख़ूबसूरत उतरदा ऐ, 
खिड़खिड़ हसदा ऐ
सफ़ेदपोश बड़े ख़ुश होंदे न
हत्थ लुआरी-लुआरी वाह-वाही करदे न
पता नेईं चलदा कुसलै
कि मेरी का'न्नी गी भन्नी दिंदे न
सारी स्याही काकलै पर डोली ओडदे न
जिसी दिक्खी बड़ा घटोनी
जे इ'यो ते ऐ ओह् मुआंदरा?
फ्ही कि नेईं मनदे।
        ( डॉ. चंचल भसीन )

Sunday, March 22, 2015

एहसास ( डॉ. चंचल भसीन )

ज़िंदा होने का एहसास होना चाहिए
जिस कारण लिखने लगती हूँ
मनुष्य पर श्रृंगारिक कविता
छल-कपट, झूठ-जूठ, मार-कटाई,
हिंसा-भ्रष्टाचार से जो भरपूर है
बहुत अच्छा लगता है
दिखने में 
सबको अपनी ओर अकर्षित करता है 
मनमोहक 
अपने आस-पास बिठाए रखता है
जब उसका चेहरा उतारती हूँ
पन्नों पर 
सभी ख़ूबियों के साथ
ख़ूबसूरत उतरता है
सफ़ेदपोश बड़े ख़ुश होते हैं
हाथों को उछाल-उछाल कर 
वाह-वाही करते हैं
पर पता नहीं चलता 
कब और क्यों?
मेरी क़लम को क़ैद करके
सारी स्याही पन्नों पर उडेल दी जाती है।
जिसे देखकर बड़ी घुटन महसूसती हूँ 
कि यही तो है वो चेहरा
फिर मानते क्यूँ नहीं ?
           ( डॉ. चंचल भसीन )

Wednesday, March 18, 2015

मन चंचल ऐ ( डॉ. चंचल भसीन )

मन चंचल ऐ
उड़दा फ़िरदा
नेईं समींदा
नेईं पतींदा
करदा अड़िया
लांदा झड़ियाँ 
राड़-बराड़ करदी रौह्नी 
एह्दे'नै लग्गी रौह्नी 
सोचा फ्ही
मन चंचल ऐ।
बौंह्दा फ्ही जाईं
उच्ची टिसी
चांह्दा दुनिया'नै मिलना
दिक्खदा जिसलै छलदी दुनिया
लगदा खिंझन
मिगी खंझान
एह्दे'नै मिं बड़ी परेशान
सोचा फ्ही
मन चंचल ऐ।
जद् दिक्खै मिं निम्मोझान
होंदा फ्ही एह् परेशान 
गले'नै लांदा मिं पतेआंदा 
बनदा साह्रा
होंदा गुज़ारा 
सोचा फ्ही 
मन चंचल ऐ।
( डॉ. चंचल भसीन ) 
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Saturday, March 14, 2015

"शब्द" ( डॉ. चंचल भसीन )

शब्दों की बस्ती में गुम हूँ, 
यहाँ बेशुमार शब्द पड़े हैं
पर उलझे हुए 
शब्दों के अर्थ नहीं मिलते मुझे,
जो अपने अर्थ खोते जा रहे हैं,
उन्हें ढूँढने की 
कोशिश में हूँ।
सुना है शब्दों में रिश्तों की कशिश है,
प्रेम-प्यार की गर्माहट है,
यह सब हैं कहॉं?
जो हैं मुझे
थके-थके से लगते हैं।
जो अपनी एहमियत चाहते हैं, 
छटपटाते दिखते हैं
हाँ, इन्हें ही समेटना चाहती हूँ, 
पर मेरे हाथों से क्यूँ 
फिसलते जा रहे हैं,
क्या, इन्हें भी आदत हो गई है
बे-तरतीव रहने की,
थक गई हूँ सोचते-सोचते
अब मेरे सामने बेढंगे शब्द
मुझे खिंझा रहे हैं, हस रहे है
बेवस हूँ नहीं समझ पा रही
यह सब क्या है?



Wednesday, March 11, 2015

अकसर वो हमसे उम्मीद रखते हैं
पर ख़ुद कभी खरे उतरे नहीं। ( डॉ. चंचल भसीन )