Thursday, April 30, 2020

' दलित साहित्यकारों का डोगरी गद्य साहित्य में योगदान' ( डॉ. चंचल भसीन)

“दलित साहित्यकारों का डोगरी -गद्य साहित्य में योगदान"
                              डॉ. चंचल भसीन
  समकालीन परिस्थितियों को जब एक साहित्यकार अपनी कृतियों के माध्यम से व्यक्त करता है तो वे उस समय अपने वक्त का आईना होता है। ये सब हमें साहित्य से ही पता चलता है कि व्यक्ति उस समय कौन सी बुरी-भली परिस्थितियों को भोग रहा था। साहित्यकार एक सम्वेदनशील व्यक्ति है और समय की गतिविधियों से प्रभावित होकर रचना ही नहीं करता है। वे सिर्फ साहित्य की रचना ही नहीं करता बल्कि उसके निपटारे के सुझाव भी देता है। उस समय ये नहीं देखा जाता कि साहित्यकार कौन सी जाति के साथ सम्बन्ध रखता है और कौन सी जाति समस्या के साथ जूझ रही है उस समय सिर्फ उपाय तलाशने  की ओर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। जैसे कि भारत देश में विभिन्न जाति के लोग मिलजुल कर संतोष के साथ रहते हैं ओर अपने देश को उन्नति की ओर ले जा रहे हैं। ऐसे ही साहित्य की संरचना में भी सभी जातियों ओर धर्मों के लोग संगठित होकर भारत को समृद्ध ओर मजबूत साहित्य देने में योगदान दे रहे हैं। चाहे वे किसी भी जात के हो। ओर साहित्यकार उसी परिस्थितियों से प्रभावित होता है जो परिस्थितियाँ समाज को नुक्सान पहुंचाती हैं और साहित्यकार का कर्तव्य बनता है कि वे उन बुरी अलामतों से लोगों को बचा कर ले जाए और ये भूमिका वे बहुत अच्छी तरह से निभाता भी है। वे चाहे किसी भी जाति या भाषा का क्यों न हो पर इस समय मैं बात उन दलित साहित्यकारों की कर रही हूँ जो डोगरी भाषा में अपनी सक्रीय भूमिका निभा कर योगदान दे रहे हैं जिन्होंने अपनी सूझ-बुझ ओर तीव्र कलम के साथ डोगरी साहित्य को समृद किया है और कर रहे हैं। ये साहित्यकार वेशक गिनती में कम होंगे पर इनका साहित्य में बहुमूल्य योगदान है ओर दूसरे साहित्यकारों के साहित्य से मुकाबला भी करता है। क्योंकि दुसरे साहित्यकार तो परिस्थितयों से प्रभावित हो कर साहित्य की सृजना करते है पर दलित साहित्यकार इन परिस्थितियों को भोगकर अपने मन के भाव व्यक्त करता है। जिस कारण दलित साहित्यकारों का साहित्य सामाजिक धरातल के साथ जुड़ा हुआ ओर उच्च श्रेणी का बनता है। डोगरी साहित्य की आज ऐसी कोई विधा नहीं है जिस में साहित्यकार अपना योगदान  नहीं दे रहा। चाहे वे गद्य-विधा या पद्य विधा, उन सब में वे सक्रीय है। उनमें जिन साहित्यकारों का नाम हम बड़े गर्व के साथ ले सकतें हैं उनमें शिव राम ‘दीप’, ज्ञान चंद डोगरा, नरसिंह दास, जोगिन्दर पाल ‘जिन्दर’ कृष्ण लाल मस्त, शैलेन्द्र सिंह, डॉ. चंचल भसीन, डॉ. कुलदीप डोगरा, डॉ. मनोज हीर, डॉ. अंजू रानी, शमशेर लाल, बविता रानी, डॉ. राधा रानी, प्रदीप पंगोत्रा, आदि हैं। ये साहित्यकार हर क्षेत्र में अपना योगदान दे रहे हैं। डॉ. शिव राम दीप ने डोगरी पद्य साहित्य में अपनी श्रेष्ठ रचनाएं दी हैं जिस कारण उन्हें राज्य की कल्चरल अकादमी, ओर साहित्य अकादमी नमीं दिल्ली के अवार्ड भी मिल चुके हैं। 
  पत्र को आगे बढ़ाने से पहले मैं यह स्पष्ट कर देना चाहूंगी कि यह पत्र उन दलित साहित्यकारों पर आधारित है जो गद्य साहित्य में अपनी रचना पाठकों को दे रहे हैं उनमें गिरधारी लाल राही, शैलेन्द्र सिंह, डॉ. चंचल भसीन, डॉ. कुलीप डोगरा, जोगिन्दर पाल ‘जिंदर’ डॉ. राधा रानी, डॉ. अंजू रानी, डॉ. मनोज हीर, शमशेर लाल आदि है। यहां पर अब बात उन साहित्यकारों के रचित साहित्य की करना चाहूंगी। सबसे पहले गिरधारी लाल राही जो कहानीकार के रूप में अपनी प्रथम पुस्तक ‘फुल्ल ते कंड़े’ (फूल और कांटे) सन् 2015 में लेकर आए पुस्तक में कुल 21 कहानियां जो इनकी जिन्दगी के तजुरबे हैं जो पाठक को सोच में डाल देते हैं। वैसे तो जे बहुत समय से साहित्य लिख रहे हैं। पर लगातार लिखना इन्होंने सेवानिवृत होने के पश्चात ही आरम्भ किया। संग्रह की पहली कहानी ‘समाधी’ (समाधि) जिसमें कहानी की नायिका ‘वीरो’ को दुनिया के बनाए हुए कानून रास नहीं आते तो वह आत्महत्या कर लेती है क्योंकि उसे शरीर में खुजली है और बैध के कहने पर कि इन्हें कोढ़ जैसी बीमारी है और छूत की है। सबको इस से बचने के लिए निर्देश देता है यहां तक की उसे बच्चों से भी नहीं मिलने दिया जाता। पर जब वह आत्महत्या कर लेती है तो उसके पश्चात समाधि बनाकर पूजने लगते हैं। ‘हिरखै दे अत्थरूं’ (प्यार के आंसू) बेजुबान पंछी की कहानी है जिनको व्यक्ति अपने शौक के कारण बंदी बनाकर रख लेता है हर जीव-जन्तु अपने परिवार के साथ खुली फिजा में रहना चाहता है। इस दुखांत को दर्शाने के लिए  कहानीकार ने एक तोते को जरिया बनाया है। ‘ओह् बावा कु’न हा’ (बाबा कौन था), जदूं जदूं बैर पक्के (जब-जब बेर पके), फुल्ल ते कंड़े (फूल और कांटे) संग्रह की शीर्षक की कहानी है जिसमें कहानीकार ने रिश्तों के बीच स्वार्थ को बहुत ही खूबसूरती से वर्णन किया है कहानी का पात्र अपने परिवार की जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते, अपने छोटे भाई-बहनों के घर बसाते-बसाते खुद शादी नहीं करता पर आखिर में सभी अपने-अपने घरों में व्यस्त हो जाते हैं तो उसे वृदाश्रम का सहारा लेना पड़ता है। ‘हासे ते अत्थ्रूरूं’  (हंसी और आंसू), ‘कांए दा आह्लडा’ (कौवे का घौंसला), ‘बक्खरे-बक्खरे रूप’ (अलग-अलग रूप), गोरख धंधा, ‘खुट्टा सिक्का’, लाड-प्यार, ओपरे-ओपरे लोग (अनजान लोग), आदि कहानियों में कहानीकार ने आम मनुष्य की बात की हुई है जो तंग-दिली समाज में अपना अस्तित्व बचाने के लिए उन शक्तियों से लद रहा है जो उसे बेहतर जीवन नहीं भोगने देते। इनकी कहानियाँ समाज से जुडी हुई हैं।
   दलित साहित्यकार भी संसार की विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों के साहित्य के साथ मुकाबला कर रहे हैं जैसे जोगिन्दर पाल ‘जिन्दर’ एक नौजवान लेखक किसी ऊँचे पद पर आसीन नहीं है बल्कि एक मोची का काम करने वाला यानि जूतों की मुरम्मत करके अपनी जीविका का निर्वाह करता है। पर इन की लेखनी बहुत ही दमदार, जो जिन्दगी के तजरबों से लबालब है। ‘जिन्दर’ की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है जिस कारण इनका आज तक किसी भी विधा में कोई भी संग्रह नहीं प्रकाशित हो सका पर हर विधा में भारत के विभिन्न राज्यों से प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं में इन की रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। 
    इनका साहित्य इस प्रकार है अभी ता इनकी 30-35 कहानियाँ विभिन्न पत्रिकाओं में छप चुकी हैं जैसे-आत्म-शान्ति, फुल्ल, शेख फ़क़ीर, गरीबू दी कुल्ली, केह् दा केह्, ओह्दी परिभाशा, मेद अजें भी ऐ? हिरखी पत्तर दा परता, धूं नेईं देओ, होई निं सकदा, डोगरी में बात करूँ तो मम्मी मारेगी, साढ़े शैहरै गी यू. पी. बिहार नेईं बनाओ, आम-आदमी, इक चिट्ठी तेरे नां, राजकुमार, कबेला, टाइम-पास, गंद, बीरू दी देयाली, लोक समुन्दर, दुनिया गी किश देइयै जाइए, आदि अधिक अभी बिखरी हुई पड़ी हैं जो इनके लिए इकट्ठा करना नमुमकिन है। एक आलोचक और निबंधकार के रूप में भी इनके बहुत सारें लेख पत्र-पत्रिकाओं प्रकाशित हो चुके हैं। इसके इलावा अनुवाद के क्षेत्र में भी इन्होंने काम किया है। मध्यप्रदेश के कहानीकार डॉ. गोपाल नारायण आवटे कहानी संग्रह का इन्होंने अनुवाद किया है पर आर्थिक तंगी कारण अभी तक प्रकाशित नहीं हो सका। इनको पत्रकारिता में भी रूचि है जिस कारण कई अखबारों के साथ जुड़े हुए हैं। जोगिन्दर पाल ‘जिन्दर’ की कलम एक दरिया का रूप धारण किए हुए है जो निरतर प्रवाह में बहती जा रही है।
   डॉ. कुलदीप डोगरा शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं और डोगरी साहित्य को भी अपनी कलम से समृद्द कर रहे हैं। ये साहित्य की विभिन्न विधाओं में लिखते हैं जैसे कविता, गजल, गीत, कहानी और आलोचना के क्षेत्र में भी इनके आलोचनात्मक लेख प्रकाशित हो चुके हैं। इनके नाटकों पर दो लेख जैसे मोहन सिंह के नाटकों में चित्रित पात्र और सरपंच नाटक पर आलोचनात्मक लेख भी हैं ओर इनकी कहानी भी दैनिक कश्मीर टाइम्स में प्रकाशित हो चुकी है।
   आज डोगरी साहित्य में बहुत से रचनाकार इस काफले में जुड़ते जा रहे हैं। जिनकी रचनाएं श्रेष्ठ और उत्तम स्तर की हैं। इसमें उपन्यासकार शैलेन्द्र सिंह जिन्होंने आम जन की समस्याओं को अपने उपन्यासों में चित्रित किया है। सन् 2010 ई. में लेखन में नये पर तजुरबें में गुढ़े नौजवान शैलेंद्र सिंह का “हाशिये पर” 161 पृष्ठों का प्रथम उपन्यास प्रकाशित हुआ जो डोगरी साहित्य विधा में आकर सम्मलित हुआ । यह एक सामाजिक-यथार्थवादी उपन्यास है जो आज के समाज की निशानदेही करता है। यह कृति इनकी पहली है। इस उपन्यास को सन् 2014 का श्री राम नाथ शास्त्री मेमोरियल अवार्ड और सन् 2014 का साहित्य अकादमी, नमीं दिल्ली द्वारा अवार्ड भी मिल चुका है। “हाशिये पर” उपन्यास का कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है जिसका अंग्रेजी में अनुवाद “Hashiye Par: For A Tree To Grow” के नाम से श्री सुमन कुमार शर्मा ने 2014 में किया और ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नमीं दिल्ली ने प्रकाशित किया। “हाशिया” नाम से हिंदी में अनुवाद इसका अनुवाद जानी मानी डोगरी- हिंदी की कवयित्री, अनुवादक, आलोचक, समीक्षक, कहानीकार, शिक्षका, डॉ. चंचल भसीन ने सन् 2017 ने किया। । इस उपन्यास का कथानक सशक्त ओर आज के समाज में लोगों के साथ होने वाली बेन्याही और वे परिवार जो रोज-ब-रोज की जिन्दगी में संघर्ष करके दो समय की रोटी का बंदोबस्त भी नहीं कर सकता है जो दिन में सौ बार अपनी परेशानियों जीता-मरता है। उसके जीवन की गाड़ी को वे गति नहीं मिलती जिससे वे काम करने के बाद चैन से सो सके। वे हर समय इस सोच में पड़ा रहता है कि अब तो मेहनत करके खा ली है। अगले पहर भी उसे नसीब हो सकेगी या नहीं? ‘हाशिया’ उपन्यास का परिवार मेहनत तो बहुत करता है पर उसको, उनकी मेहनत का मेह्न्ताता उतना नहीं मिलता जिससे वे अपनी गुजर-बसर सुचारू रूप से कर सके। इनका दूसरा उपन्यास ‘सेवाधनी’ जो पहले उपन्यास के जैसे ही समस्या प्रधान उपन्यास है। इसका कथानक 240 पृष्ठों में बाल-श्रम आधारित है। डुग्गर का पहाड़ी इलाका रामनगर की जनता गरीबी रेखा के नीचे रह रही है उसके पास अभी भी कोई ऐसा कार्य नहीं है जिससे अपना जीवन सुखी व्यतीत कर सके। सूरज की किरण तो सर्वप्रथम पड़ती है पर शिक्षा की किरण अभी भी नहीं पहुँच सकी। इसका सबसे अधिक असर आने वाली पीढ़ी पर पड़ता है जो समाज का भविष्य हैं। इस समय उनके उज्ज्वल भविष्य की ओर ध्यान होना चाहिए वहीं ये बच्चे गरीबी के चक्कर में फसे हुए, उन लोगों के हाथों चढ़े हुए है यहाँ उनके विकास की ओर ध्यान होना चाहिए। उसे समाज की किसी भी अच्छी-बुरी बात का पता ही नहीं चलता। वे किसी पर ही निर्भर है वे उनके हाथों की कठपुतली है छोटी-छोटी बातों पर उन्हें प्रताड़ना मिलती है। उपन्यासकार शैलेन्द्र सिंह अपनी अभिव्यक्ति के कारण मनुष्य ह्रदयों को छूने में सफल हुए हैं। शैलेन्द्र सिंह अपनी नौकरी की व्यस्तता के बाबजूद भी, अपनी मातृभाषा में उपन्यास लिखकर एक प्रशंसनीय कार्य किया है।
  डॉ. चंचल भसीन का नाम कवयित्री, अनुवादक, आलोचक, समीक्षक, कहानीकार, के रूप में लिया जाता है। जिनकी चार पुस्तकें पाठकों के बीच आ चुकी हैं। इनकी पहली पुस्तक 2013 में ‘डोगरी उपन्यासें च वर्ग-संघर्श’ प्रकाशित हो चुकी है जिसमें डोगरी के 26 उपन्यासों का आलोचनात्मक कार्य है। जो वर्गों के आधार पर किया गया है। साहित्य अकादमी द्वारा एक परियोजना के अंतर्गत तमिल के हिंदी अनुवाद उपन्यास ‘बदलते रिश्ते’ का डोगरी में अनुवाद, डोगरी उपन्यास ‘हाशिये पर’ का हिंदी में ‘हाशिया’ नाम से अनुवाद और शैलेन्द्र सिंह का ही दूसरा उपन्यास ‘सेवाधनी’ का हिंदी अनुवाद किया हुआ है इसके साथ इनके दो संग्रह विभिन्न आलोचनात्मक लेखों पर आधारित ‘डोगरी साहित्य: केईं पक्ख’ प्रैस में और एक कविता संग्रह भी प्रैस में में है। शीघ्र ही पाठकों के समक्ष होंगे। जिसमें डोगरी, हिंदी, अंग्रेजी की पुस्तकों और लेखों का अनुवाद किया है। मणिपुरी कहानियों का अंग्रेजी से डोगरी में अनुवाद भी साहित्य अकादमी के सहजोग से किया है। डॉ. चंचल भसीन का नाम डोगरी के नामबर लेखकों में होता है। आखिर में मैं अपने इस पत्र को विराम देते हुए यही कहना चाहूँगी कि दलित साहित्यकार भी साहित्य लिखने में अपना पूरा योगदान दे रहा है। पर अपनी कुछ आर्थिक स्थिति के कारण अपने लिखित साहित्य को प्रकाशित नहीं करा पा रहा जिस कारणवश साहित्य हमारे पास नहीं पहुंच रहा। अब युवा लेखक भी साहित्य की और आ रहे हैं जो ज्वलंत समस्याओं को आधार बना कर लिख रहे हैं। -
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       डॉ. चंचल भसीन

'क्रांतिकारी संत श्री गुरु रविदास जी'

‘क्रांतिकारी संत श्री गुरु रविदास जी’
  संसार में संतों का स्थान सबसे ऊँचा और श्रेष्ठ होता है, मनुष्य ही नहीं देवता भी संतों को अपने से श्रेष्ठ मानते हैं। पर समाज में सचे संत कम ही मिलते हैं। समाजी इच्छाओं  को मारकर ही मनुष्य संतों की श्रेणी में आता है। मीरा के गुरु, कबीर के समकालीन, सर्ववंदनीय संत श्री रविदास का नाम संसार के संत जगत में सूर्य की भांति प्रकाशमान है। इन्होंने इस बात को प्रमाणित कर दिखाया की प्रभु की भक्ति में जातपात का भेदभाव नहीं किया जा सकता है। बल्कि अपने ऊँचे कर्मों के साथ ही मनुष्य परमात्मा से मेल कर सकता है। ईश्वर को प्राप्त करना किसी एक वर्ग या जाति का अधिकार नहीं है। बेशक संत रविदास का जन्म गरीब परिवार में हुआ पर उन्होंने अपने तप से समाज में पुजनीय स्थान प्राप्त किया। जैसे कहा जाता है कि जब-जब संसार में धर्म को खतरा हुआ और अधर्म ने कहर ढाया उस समय परमात्मा को किसी न किसी रूप में धरती पर आना पड़ा। चाहे वे कोई भी रूप हो। ऐसे ही 15बीं शताब्दी में धरती पर जुलम-अत्याचार इतना बढ़ गया था कि मनुष्य—मनुष्य के साथ नफरत करने लग गया था, इंसान छोटी-छोटी जातियों में बंट गऐ थे और बड़ी जाति के लोक छोटी जाति के लोगों से नफरत करने लग गए थे अर्थात उनकी परछाई से भी डरने लगे थे। तब उस समय प्रभु ने जुल्मों का नाश करने और इंसानों के दुखों का निपटारा करने के लिए इंसान रूप में काशी में प्रभु ने जन्म लिया। भारत में सदियों से अनेक महान संतों ने जन्म लेकर इस भारतभूमि को धन्य किया है जिसके कारण भारत को विश्वगुरु कहा जाता है और जब जब हमारे देश में ऊंचनीच, भेदभाव, जातपात, धर्म भेदभाव अपने चरम अवस्था पर हुआ है तब तब हमारे देश भारत में अनेक महापुरुषों ने इस धरती पर जन्म लेकर समाज में फैली बुराईयों, कुरूतियों को दूर करते हुए अपने बताये हुए सच्चे मार्ग पर चलते हुए भक्ति भावना से पूरे समाज को एकता के सूत्र में बांधने का काम किया है इन्हीं महान संतो में संत गुरु रविदास जी का भी नाम आता है। रविदास भारत में 15वीं शताब्दी के एक महान क्रांतिकारी संत, दर्शनशास्त्री, कवि, समाज-सुधारक और ईश्वर के अनुयायी थे। गुरू रविदास जी का जन्म 1433 में श्री गोवर्धन पूरा काशी, माध पूर्णिमा को रविवार, श्री संतोख और माता कलसा के घर हुआ। चमार कुल में हुआ था। कईं इतिहासकार इनका जन्म मंडूर गाँव मानते हैं पर खोज-पड़ताल के उपरांत इनका जन्म गोवर्धन पूरा ही साबित हुआ है।
    चौदह सौ तैंतीस की माघ सुदी पन्द्रास।
    दुखियों के कल्याण हित,प्रगटे श्री रविदास।।   
    रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे। उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे। प्रारम्भ से ही रविदास जी बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रविदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से अलग कर दिया। रविदास जी पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग झोपड़ी बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे। इनकी गरीबी को देखकर भगवान साधू का रूप धारण करके आए और इनको पारस पत्थर दिया जिसे गुरु रविदास ने लेने से इनकार कर दिया, साधू इनकी कुटिया में पारस छोडकर चला गया। कुछ समय के पश्चात उनकी कुटिया में आए, देखा कि वहीं पड़ा था। उनके भाव इन पंक्ति में साफ़ देखे जा सकते हैं:-
    हरि सा हिरा छाडि के, करै आंन की आस।       
     ते नर दोजक जाहिगे, सति भाखै रविदास।।
    और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे। उनके समय में शुद्रों (अस्पृश्य) को ब्राह्मणों की तरह जनेऊ, माथे पर तिलक और दूसरे धार्मिक संस्कारों की आजादी नहीं थी। संत रविदास एक महान व्यक्ति थे जो समाज में अस्पृश्यों के बराबरी के अधिकार के लिये उन सभी निषेधों के खिलाफ थे जो उन पर रोक लगाती थी। उन्होंने वो सभी क्रियाएँ जैसे जनेऊ धारण करना, धोती पहनना, तिलक लगाना आदि निम्न जाति के लोगों के साथ शुरु किया जो उन पर प्रतिबंधित था। ब्राह्मण लोग उनकी इस बात से नाराज थे और समाज में अस्पृश्यों के लिये ऐसे कार्यों को जाँचने का प्रयास किया। हालाँकि गुरु रविदास जी ने हर बुरी परिस्थिति का बहादुरी के साथ सामना किया और बेहद विनम्रता से लोगों का जवाब दिया। अस्पृश्य होने के बावजूद भी जनेऊ पहनने के कारण ब्राह्मणों की शिकायत पर उन्हें राजा के दरबार में बुलाया गया। वहाँ उपस्थित होकर उन्होंने कहा कि अस्पृश्यों को भी समाज में बराबरी का अधिकार मिलना चाहिये क्योंकि उनके शरीर में भी दूसरों की तरह खून का रंग लाल और पवित्र आत्मा होती है संत रविदास ने तुरंत अपनी छाती पर एक गहरी चोट की और उस पर चार युग जैसे सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर और कलयुग की तरह सोना, चाँदी, ताँबा और सूती के चार जनेऊ खींच दिया। राजा समेत सभी लोग अचंभित रह गये और गुरु जी के सम्मान में सभी उनके चरणों को छूने लगे। राजा को अपने बचपने जैसे व्यवहार पर बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई और उन्होंने इसके लिये माफी माँगी। गुरु जी ने सभी माफ करते हुए कहा कि जनेऊ धारण करने का ये मतलब नहीं कि कोई भगवान को प्राप्त कर लेता है। इस कार्य में वो केवल इसलिये शामिल हुए ताकि वो लोगों को वास्तविकता और सच्चाई बता सके। गुरु जी ने जनेऊ निकाला और राजा को दे दिया इसके बाद उन्होंने कभी जनेऊ और तिलक का इस्तेमाल नहीं किया। इनका मानना है:-
            रविदास जन्म के कारनै, हौत न कोई नीच।     
            नर कू नीच करि डारि है, ओंछे क्रम को कीच।।
      कोई भी व्यक्ति छोटी जाति से जन्म लेने से छोटा या ऊँची जाति में जन्म लेने से ऊँचा नहीं हो सकता बल्कि कर्मों से ही छोटा या बड़ा होता है। उन्होंने यह भी कहा है कि उच्च कुल या जाति में जन्म लेना ही तो वे पुजनीय नहीं है बल्कि अपने अच्छे कर्म से ही पुजनीय हो सकता है:-   
             रविदास ब्राह्मण, मति पूजिए, जह होवे गुणहीन। 
              पूजिहि चरन चण्डाल के, जह होवे गुण परवीन।।     
  धर्मों के पलड़े में इंसानियत को बांट कर कुछ कट्टरपंथी भ्रम की स्थिति पैदा कर रहे थे। सूफी संतों की तरह श्री गुरु रविदास जी ने उत्पीड़ितों के घावों को सहलाते हुए उन्हें हिन्दू मुस्लिम एकता का संदेश दिया :- 
      मुसलमान से कर दोस्ती हिन्दुअन से कर प्रीत।
      रविदास ज्योति सब राम की, सभी हैं अपने मीत।
  इनकी नजर में कोई भी धर्म छोटा-या बड़ा नहीं था। सभी का रास्ता एक ही मंजिल पर जाकर मिलता है। इसी सर्वधर्म सम भाव को समझाते उन्होंने कहा :-
        रविदास हमारो राम जी, सोई हैं रहमान,
       काशी जानी नहीं दोनों एकै समान। 
    गुरु रविदास जी जात-पात, भेदभाव और ऊंच नीच के घोर विरोधी थे। उनकी दृष्टि में वर्ग और वर्ण कृत्रिम, और काल्पनिक हैं जो कर्मकांडियों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए बनाए हैं। जब तक इनसे छुटकारा नहीं मिलता व्यक्ति उन्नति नहीं कर सकता।
    गुरु जी ने सर्वप्रथम आजादी का नारा बुलंद किया। कर्म व ऊंच नीच के जाति अभिमान में डूबे कर्मकांडियों और जाति विभेद के कारण निर्बल हुए समाज को चेताया कि वे शासकों के गुलाम हैं और गुलामों का अपना धर्म नहीं होता। उन्होंने मुक्ति का संदेश देते हुए कहा :-
       पराधीन का दिन क्या, पराधीन वेदीन,
       रविदास दास पराधीन को सभी समझे हीन।
       पराधीनता पाप है, जान लेहु मेरे मीत।
       रविदास दास पराधीन से, कोई न करे प्रीत।
      रविदास जी जाति व्यवस्था के सबसे बड़े विरोधी थे उनका मानना था की मनुष्यों द्वारा जातिपाती के चलते मनुष्य मनुष्य से दूर होता जा रहा है और जिस जाति से मनुष्य मनुष्य में बटवारा हो जाये तो फिर जाति का क्या लाभ ? 
     जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
      रैदास मनुष ना जुड़ सके, जब तक जाति न जात।।
     रविदास जी के समय में जाति भेदभाव अपने चरम अवस्था पर था जब रविदास जी के पिता की मृत्यु हुई तो उनके दाह संस्कार के लिए लोगों की मदद मांगने पर भी नहीं मिलती हैं लोगों का मानना था कि वे शुद्र जाति के हैं और जब उनका अंतिम संस्कार गंगा में होगा तो इस प्रकार गंगा भी प्रदूषित हो जाएगी जिसके कारण कोई भी उनके पिता के दाहसंस्कार के लिए नहीं आता है तो फिर रविदास जी ईश्वर का प्रार्थना करते है तो गंगा में तूफान आ जाने से उनका पिता की मृत शरीर गंगा में विलीन हो जाता है। श्री गुरु रविदास जी ने अपनी वाणी में लोगों को मानवता के प्रति प्रेम का संदेश दिया है कि सब मनुष्य एक समान हैं हमें एक ही ईश्वर ने बनाया है और सभी का शरीर एक जैसे तत्वों से बना है तो फिर छोटा बड़ा नहीं है। श्री गुरु रविदास जी के अनुसार:-
    एक माटी के सभ भांड़े, सबका एकौ सिरजनहारा,
   ‘रविदास’ व्यापै एकौ घट भीतर, सब की एकै घड़े कुम्हारा।।
  श्री गुरु रविदास जी ने स्पष्ट कहा है कि जन्म और मृत्यु के बारे में कोई नहीं बता सकता कि जीव ज्योति कब जगेगी और कब बुझेगी। इनका स्पष्ट सिद्धांत जीवन सार श्रेष्ठ और अच्छे कर्मों पर आधारित है। हम अलग-अलग बेष बदलते है पर प्रभु भक्ति का बास्तविक भेद जानने का कोशिश नहीं करते:-
    भेष लियो पै भेद न जानियो,
     इम्रित लेइ विखै सौ सानयौ,
     काम क्रोध में जन्म गंवायो,
    साध संगति मिलि राम न गायौ।
   श्री गुरु रविदास जी 120 बर्ष तक लोगों को अपनी वाणी और प्रवचनों से निहाल करते रहे। इनकी भक्ति और प्रेम को देख कर कई महापुरुष उनकी महिमा गाने लगे। गुरु रविदास किसी एक महजब के रहबर नहीं हैं बल्कि समस्त प्राणी इनकी वाणी को मानते और उन्के लिए प्ररेणा-स्रोत हैं। उन्होंने सच ही कहा है कि ‘मन चंगा ते कठोती में गंगा’। शुद्द मन में ही ईश्वर वास करते हैं। माध महीना आते ही संत श्री गुरू रविदास जी के अनुयायी उनके प्रकाश दिवस की तैयारियों में लीन हो जाते हैं।
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                                                 (डॉ. चंचल भसीन)

Saturday, April 25, 2020

'अतीत' (डॉ. चंचल भसीन)

‘अतीत’

जिसलै घर बौह्‌ने दा 
खु’ल्ला समां मिलेआ ऐ
मेरा अतीत परतोई आया ऐ
सामधाम, नजरी अग्गै आई खड़ोता ऐ

हर इक शैऽ
हांबदी,पुछदी सेही होई –
की लाया
असेंगी मिलने च
इन्ना चिर

कमरें दी इक-इक चूंह्‌क
लग्गेआ बलगा दी ऐ
जे  कोई उसगी फंडै-सोतै
लिंबी-पोची रक्खै
जे उसदा रूपै बंदोऐ

अलमारी खोह्‌लदे गै
हर इक चीज
बिंबली-बिंबली पवै 
इक-दुए- थमां अग्गै औने गी
धुस्सां मारै
इक बी नेईं रेहा अपनी थाह्‌रा
सब्भै आई पैरें- बाह्‌मैं पलमोए
अश्कैं आखन –
तुन्नो-तुन्नी च घुटन होआ दी ही

रसोई दा हाल बी किश नेहा गै हा
खिट्टें पेदी जिंदगी च
किश कढ़ाई, पतीले, कौलियां, कड़छियां
जोरें-जोरें तांह्-तोआंह् ठनकदियां
ते
किश अपनी बारी दी निहालपै च रौंह्‌दियां
खुंझा लग्गी दियां
धूड़-मधूड़ियां
बरीह्‌के ञ्याने लेखा छिंडै कीती दियां
हांईं-मांहीं नेईं ही लैंदी
उं’दी बाता-लोऽ
अज्ज बड़ियां खुश न
कम्म आइयां न
उं'दे च अज्ज पक्का दे न
बन-सबन्ने पकोआन
हत्था चिमचे बी छड़ोई गे

घरै दे जीएं दा बी किश इ'यै हाल हा
समें दी घाट ने
मिगी करी दित्ते दा हा
इं'दे थमां,
परोआर थमां दूर
अज्ज दायरा घटी गेआ ऐ
दुनिया लौह्की
पर सौखी बझोआ दी ऐ
फ्ही परतोई आई आं में अपनें च
एह् मीं दिक्खियै खुश न
ते में इ’नेंगी
मेरा अतीत परतोई आया ऐ
सामधाम, नजरी अग्गै आई खड़ोई गेआ ऐ ।
               ©️(डॉ. चंचल भसीन)

Saturday, April 18, 2020

'चिंगारी'- डॉ.चंचल भसीन

'चिंगारी' तेरा यूँ हाथों से खींच कर सीने से लगाना तेरी गर्माहट से मेरा पिघलना मदहोश करता मुझे मेरे बदन के दहकते अंगारे तुझे आकर्षत करते उकसाते पलभर में चिंगारी का विराट रूप लेना दुनिया की परवाह न करते हुए सब भूल जाना क्षणों में ही ज़िंदगी जी लेना किसी जन्नत से कम नहीं। (डॉ.चंचल भसीन)

Friday, April 17, 2020

सैह्म- डॉ.चंचल भसीन

सैह्म 
मतें दिनें मगरा‬
‪अपने-आप कन्नै,‬  ‬
‪मिलने दा समां मिलेआ,‬
‪जेह्ड़ा किश खोह्दल च,‬
‪सैहमे-सैहमे दा हा, ‬
‪पर‬
‪मिलियै सुकून मिलेआ ‬
‪शैल लग्गा,‬
‪संदोख बुज्झेआ, ‬
‪मती गल्ल ‬
‪मूल अपना गै,‬
‪बझोआ। ‬
(डॉ. चंचल भसीन)

'सुआर्थ'-डा.चंचल भसीन


---सुआर्थ---

कदूं तगर सुआर्थियें,
दुएं दे मुहें च अपने घड़े- घड़ाए दे
शब्दें गी पांदे रौह्‌ना
जे सब उं'दे घड़े दे
चापे दे शब्दें दी गै बोलन
जेह्‌ड़े
उ’नें अपने स्वार्थ,
लुब्भ-लालच करी
चमकाए दे न
बशक्क
ओह् त्रेह्‌डे-मेह्‌डे
डिंग-बड़िंग जां
त्रिक्खें की नेईं होन

लोकें दे मुहें च
फिट बी नेईं औन
उ’नेंगी ल्हु-लुहान करी देन
फिक्र नेईं
भामें
खप्पू बी लग्गै
उ’नेंगी उज्जन बी नेईं देन
पर,
ओह् उ’ऐ बोलन
जेह्‌ड़े उ’नेंगी
फैदा दिंदे न
बस्स
जेह्‌ड़े उं'दे
मतलब दे न।
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डॉ.चंचल भसीन