“दलित साहित्यकारों का डोगरी -गद्य साहित्य में योगदान"
डॉ. चंचल भसीन
समकालीन परिस्थितियों को जब एक साहित्यकार अपनी कृतियों के माध्यम से व्यक्त करता है तो वे उस समय अपने वक्त का आईना होता है। ये सब हमें साहित्य से ही पता चलता है कि व्यक्ति उस समय कौन सी बुरी-भली परिस्थितियों को भोग रहा था। साहित्यकार एक सम्वेदनशील व्यक्ति है और समय की गतिविधियों से प्रभावित होकर रचना ही नहीं करता है। वे सिर्फ साहित्य की रचना ही नहीं करता बल्कि उसके निपटारे के सुझाव भी देता है। उस समय ये नहीं देखा जाता कि साहित्यकार कौन सी जाति के साथ सम्बन्ध रखता है और कौन सी जाति समस्या के साथ जूझ रही है उस समय सिर्फ उपाय तलाशने की ओर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। जैसे कि भारत देश में विभिन्न जाति के लोग मिलजुल कर संतोष के साथ रहते हैं ओर अपने देश को उन्नति की ओर ले जा रहे हैं। ऐसे ही साहित्य की संरचना में भी सभी जातियों ओर धर्मों के लोग संगठित होकर भारत को समृद्ध ओर मजबूत साहित्य देने में योगदान दे रहे हैं। चाहे वे किसी भी जात के हो। ओर साहित्यकार उसी परिस्थितियों से प्रभावित होता है जो परिस्थितियाँ समाज को नुक्सान पहुंचाती हैं और साहित्यकार का कर्तव्य बनता है कि वे उन बुरी अलामतों से लोगों को बचा कर ले जाए और ये भूमिका वे बहुत अच्छी तरह से निभाता भी है। वे चाहे किसी भी जाति या भाषा का क्यों न हो पर इस समय मैं बात उन दलित साहित्यकारों की कर रही हूँ जो डोगरी भाषा में अपनी सक्रीय भूमिका निभा कर योगदान दे रहे हैं जिन्होंने अपनी सूझ-बुझ ओर तीव्र कलम के साथ डोगरी साहित्य को समृद किया है और कर रहे हैं। ये साहित्यकार वेशक गिनती में कम होंगे पर इनका साहित्य में बहुमूल्य योगदान है ओर दूसरे साहित्यकारों के साहित्य से मुकाबला भी करता है। क्योंकि दुसरे साहित्यकार तो परिस्थितयों से प्रभावित हो कर साहित्य की सृजना करते है पर दलित साहित्यकार इन परिस्थितियों को भोगकर अपने मन के भाव व्यक्त करता है। जिस कारण दलित साहित्यकारों का साहित्य सामाजिक धरातल के साथ जुड़ा हुआ ओर उच्च श्रेणी का बनता है। डोगरी साहित्य की आज ऐसी कोई विधा नहीं है जिस में साहित्यकार अपना योगदान नहीं दे रहा। चाहे वे गद्य-विधा या पद्य विधा, उन सब में वे सक्रीय है। उनमें जिन साहित्यकारों का नाम हम बड़े गर्व के साथ ले सकतें हैं उनमें शिव राम ‘दीप’, ज्ञान चंद डोगरा, नरसिंह दास, जोगिन्दर पाल ‘जिन्दर’ कृष्ण लाल मस्त, शैलेन्द्र सिंह, डॉ. चंचल भसीन, डॉ. कुलदीप डोगरा, डॉ. मनोज हीर, डॉ. अंजू रानी, शमशेर लाल, बविता रानी, डॉ. राधा रानी, प्रदीप पंगोत्रा, आदि हैं। ये साहित्यकार हर क्षेत्र में अपना योगदान दे रहे हैं। डॉ. शिव राम दीप ने डोगरी पद्य साहित्य में अपनी श्रेष्ठ रचनाएं दी हैं जिस कारण उन्हें राज्य की कल्चरल अकादमी, ओर साहित्य अकादमी नमीं दिल्ली के अवार्ड भी मिल चुके हैं।
पत्र को आगे बढ़ाने से पहले मैं यह स्पष्ट कर देना चाहूंगी कि यह पत्र उन दलित साहित्यकारों पर आधारित है जो गद्य साहित्य में अपनी रचना पाठकों को दे रहे हैं उनमें गिरधारी लाल राही, शैलेन्द्र सिंह, डॉ. चंचल भसीन, डॉ. कुलीप डोगरा, जोगिन्दर पाल ‘जिंदर’ डॉ. राधा रानी, डॉ. अंजू रानी, डॉ. मनोज हीर, शमशेर लाल आदि है। यहां पर अब बात उन साहित्यकारों के रचित साहित्य की करना चाहूंगी। सबसे पहले गिरधारी लाल राही जो कहानीकार के रूप में अपनी प्रथम पुस्तक ‘फुल्ल ते कंड़े’ (फूल और कांटे) सन् 2015 में लेकर आए पुस्तक में कुल 21 कहानियां जो इनकी जिन्दगी के तजुरबे हैं जो पाठक को सोच में डाल देते हैं। वैसे तो जे बहुत समय से साहित्य लिख रहे हैं। पर लगातार लिखना इन्होंने सेवानिवृत होने के पश्चात ही आरम्भ किया। संग्रह की पहली कहानी ‘समाधी’ (समाधि) जिसमें कहानी की नायिका ‘वीरो’ को दुनिया के बनाए हुए कानून रास नहीं आते तो वह आत्महत्या कर लेती है क्योंकि उसे शरीर में खुजली है और बैध के कहने पर कि इन्हें कोढ़ जैसी बीमारी है और छूत की है। सबको इस से बचने के लिए निर्देश देता है यहां तक की उसे बच्चों से भी नहीं मिलने दिया जाता। पर जब वह आत्महत्या कर लेती है तो उसके पश्चात समाधि बनाकर पूजने लगते हैं। ‘हिरखै दे अत्थरूं’ (प्यार के आंसू) बेजुबान पंछी की कहानी है जिनको व्यक्ति अपने शौक के कारण बंदी बनाकर रख लेता है हर जीव-जन्तु अपने परिवार के साथ खुली फिजा में रहना चाहता है। इस दुखांत को दर्शाने के लिए कहानीकार ने एक तोते को जरिया बनाया है। ‘ओह् बावा कु’न हा’ (बाबा कौन था), जदूं जदूं बैर पक्के (जब-जब बेर पके), फुल्ल ते कंड़े (फूल और कांटे) संग्रह की शीर्षक की कहानी है जिसमें कहानीकार ने रिश्तों के बीच स्वार्थ को बहुत ही खूबसूरती से वर्णन किया है कहानी का पात्र अपने परिवार की जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते, अपने छोटे भाई-बहनों के घर बसाते-बसाते खुद शादी नहीं करता पर आखिर में सभी अपने-अपने घरों में व्यस्त हो जाते हैं तो उसे वृदाश्रम का सहारा लेना पड़ता है। ‘हासे ते अत्थ्रूरूं’ (हंसी और आंसू), ‘कांए दा आह्लडा’ (कौवे का घौंसला), ‘बक्खरे-बक्खरे रूप’ (अलग-अलग रूप), गोरख धंधा, ‘खुट्टा सिक्का’, लाड-प्यार, ओपरे-ओपरे लोग (अनजान लोग), आदि कहानियों में कहानीकार ने आम मनुष्य की बात की हुई है जो तंग-दिली समाज में अपना अस्तित्व बचाने के लिए उन शक्तियों से लद रहा है जो उसे बेहतर जीवन नहीं भोगने देते। इनकी कहानियाँ समाज से जुडी हुई हैं।
दलित साहित्यकार भी संसार की विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों के साहित्य के साथ मुकाबला कर रहे हैं जैसे जोगिन्दर पाल ‘जिन्दर’ एक नौजवान लेखक किसी ऊँचे पद पर आसीन नहीं है बल्कि एक मोची का काम करने वाला यानि जूतों की मुरम्मत करके अपनी जीविका का निर्वाह करता है। पर इन की लेखनी बहुत ही दमदार, जो जिन्दगी के तजरबों से लबालब है। ‘जिन्दर’ की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है जिस कारण इनका आज तक किसी भी विधा में कोई भी संग्रह नहीं प्रकाशित हो सका पर हर विधा में भारत के विभिन्न राज्यों से प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं में इन की रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं।
इनका साहित्य इस प्रकार है अभी ता इनकी 30-35 कहानियाँ विभिन्न पत्रिकाओं में छप चुकी हैं जैसे-आत्म-शान्ति, फुल्ल, शेख फ़क़ीर, गरीबू दी कुल्ली, केह् दा केह्, ओह्दी परिभाशा, मेद अजें भी ऐ? हिरखी पत्तर दा परता, धूं नेईं देओ, होई निं सकदा, डोगरी में बात करूँ तो मम्मी मारेगी, साढ़े शैहरै गी यू. पी. बिहार नेईं बनाओ, आम-आदमी, इक चिट्ठी तेरे नां, राजकुमार, कबेला, टाइम-पास, गंद, बीरू दी देयाली, लोक समुन्दर, दुनिया गी किश देइयै जाइए, आदि अधिक अभी बिखरी हुई पड़ी हैं जो इनके लिए इकट्ठा करना नमुमकिन है। एक आलोचक और निबंधकार के रूप में भी इनके बहुत सारें लेख पत्र-पत्रिकाओं प्रकाशित हो चुके हैं। इसके इलावा अनुवाद के क्षेत्र में भी इन्होंने काम किया है। मध्यप्रदेश के कहानीकार डॉ. गोपाल नारायण आवटे कहानी संग्रह का इन्होंने अनुवाद किया है पर आर्थिक तंगी कारण अभी तक प्रकाशित नहीं हो सका। इनको पत्रकारिता में भी रूचि है जिस कारण कई अखबारों के साथ जुड़े हुए हैं। जोगिन्दर पाल ‘जिन्दर’ की कलम एक दरिया का रूप धारण किए हुए है जो निरतर प्रवाह में बहती जा रही है।
डॉ. कुलदीप डोगरा शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं और डोगरी साहित्य को भी अपनी कलम से समृद्द कर रहे हैं। ये साहित्य की विभिन्न विधाओं में लिखते हैं जैसे कविता, गजल, गीत, कहानी और आलोचना के क्षेत्र में भी इनके आलोचनात्मक लेख प्रकाशित हो चुके हैं। इनके नाटकों पर दो लेख जैसे मोहन सिंह के नाटकों में चित्रित पात्र और सरपंच नाटक पर आलोचनात्मक लेख भी हैं ओर इनकी कहानी भी दैनिक कश्मीर टाइम्स में प्रकाशित हो चुकी है।
आज डोगरी साहित्य में बहुत से रचनाकार इस काफले में जुड़ते जा रहे हैं। जिनकी रचनाएं श्रेष्ठ और उत्तम स्तर की हैं। इसमें उपन्यासकार शैलेन्द्र सिंह जिन्होंने आम जन की समस्याओं को अपने उपन्यासों में चित्रित किया है। सन् 2010 ई. में लेखन में नये पर तजुरबें में गुढ़े नौजवान शैलेंद्र सिंह का “हाशिये पर” 161 पृष्ठों का प्रथम उपन्यास प्रकाशित हुआ जो डोगरी साहित्य विधा में आकर सम्मलित हुआ । यह एक सामाजिक-यथार्थवादी उपन्यास है जो आज के समाज की निशानदेही करता है। यह कृति इनकी पहली है। इस उपन्यास को सन् 2014 का श्री राम नाथ शास्त्री मेमोरियल अवार्ड और सन् 2014 का साहित्य अकादमी, नमीं दिल्ली द्वारा अवार्ड भी मिल चुका है। “हाशिये पर” उपन्यास का कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है जिसका अंग्रेजी में अनुवाद “Hashiye Par: For A Tree To Grow” के नाम से श्री सुमन कुमार शर्मा ने 2014 में किया और ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नमीं दिल्ली ने प्रकाशित किया। “हाशिया” नाम से हिंदी में अनुवाद इसका अनुवाद जानी मानी डोगरी- हिंदी की कवयित्री, अनुवादक, आलोचक, समीक्षक, कहानीकार, शिक्षका, डॉ. चंचल भसीन ने सन् 2017 ने किया। । इस उपन्यास का कथानक सशक्त ओर आज के समाज में लोगों के साथ होने वाली बेन्याही और वे परिवार जो रोज-ब-रोज की जिन्दगी में संघर्ष करके दो समय की रोटी का बंदोबस्त भी नहीं कर सकता है जो दिन में सौ बार अपनी परेशानियों जीता-मरता है। उसके जीवन की गाड़ी को वे गति नहीं मिलती जिससे वे काम करने के बाद चैन से सो सके। वे हर समय इस सोच में पड़ा रहता है कि अब तो मेहनत करके खा ली है। अगले पहर भी उसे नसीब हो सकेगी या नहीं? ‘हाशिया’ उपन्यास का परिवार मेहनत तो बहुत करता है पर उसको, उनकी मेहनत का मेह्न्ताता उतना नहीं मिलता जिससे वे अपनी गुजर-बसर सुचारू रूप से कर सके। इनका दूसरा उपन्यास ‘सेवाधनी’ जो पहले उपन्यास के जैसे ही समस्या प्रधान उपन्यास है। इसका कथानक 240 पृष्ठों में बाल-श्रम आधारित है। डुग्गर का पहाड़ी इलाका रामनगर की जनता गरीबी रेखा के नीचे रह रही है उसके पास अभी भी कोई ऐसा कार्य नहीं है जिससे अपना जीवन सुखी व्यतीत कर सके। सूरज की किरण तो सर्वप्रथम पड़ती है पर शिक्षा की किरण अभी भी नहीं पहुँच सकी। इसका सबसे अधिक असर आने वाली पीढ़ी पर पड़ता है जो समाज का भविष्य हैं। इस समय उनके उज्ज्वल भविष्य की ओर ध्यान होना चाहिए वहीं ये बच्चे गरीबी के चक्कर में फसे हुए, उन लोगों के हाथों चढ़े हुए है यहाँ उनके विकास की ओर ध्यान होना चाहिए। उसे समाज की किसी भी अच्छी-बुरी बात का पता ही नहीं चलता। वे किसी पर ही निर्भर है वे उनके हाथों की कठपुतली है छोटी-छोटी बातों पर उन्हें प्रताड़ना मिलती है। उपन्यासकार शैलेन्द्र सिंह अपनी अभिव्यक्ति के कारण मनुष्य ह्रदयों को छूने में सफल हुए हैं। शैलेन्द्र सिंह अपनी नौकरी की व्यस्तता के बाबजूद भी, अपनी मातृभाषा में उपन्यास लिखकर एक प्रशंसनीय कार्य किया है।
डॉ. चंचल भसीन का नाम कवयित्री, अनुवादक, आलोचक, समीक्षक, कहानीकार, के रूप में लिया जाता है। जिनकी चार पुस्तकें पाठकों के बीच आ चुकी हैं। इनकी पहली पुस्तक 2013 में ‘डोगरी उपन्यासें च वर्ग-संघर्श’ प्रकाशित हो चुकी है जिसमें डोगरी के 26 उपन्यासों का आलोचनात्मक कार्य है। जो वर्गों के आधार पर किया गया है। साहित्य अकादमी द्वारा एक परियोजना के अंतर्गत तमिल के हिंदी अनुवाद उपन्यास ‘बदलते रिश्ते’ का डोगरी में अनुवाद, डोगरी उपन्यास ‘हाशिये पर’ का हिंदी में ‘हाशिया’ नाम से अनुवाद और शैलेन्द्र सिंह का ही दूसरा उपन्यास ‘सेवाधनी’ का हिंदी अनुवाद किया हुआ है इसके साथ इनके दो संग्रह विभिन्न आलोचनात्मक लेखों पर आधारित ‘डोगरी साहित्य: केईं पक्ख’ प्रैस में और एक कविता संग्रह भी प्रैस में में है। शीघ्र ही पाठकों के समक्ष होंगे। जिसमें डोगरी, हिंदी, अंग्रेजी की पुस्तकों और लेखों का अनुवाद किया है। मणिपुरी कहानियों का अंग्रेजी से डोगरी में अनुवाद भी साहित्य अकादमी के सहजोग से किया है। डॉ. चंचल भसीन का नाम डोगरी के नामबर लेखकों में होता है। आखिर में मैं अपने इस पत्र को विराम देते हुए यही कहना चाहूँगी कि दलित साहित्यकार भी साहित्य लिखने में अपना पूरा योगदान दे रहा है। पर अपनी कुछ आर्थिक स्थिति के कारण अपने लिखित साहित्य को प्रकाशित नहीं करा पा रहा जिस कारणवश साहित्य हमारे पास नहीं पहुंच रहा। अब युवा लेखक भी साहित्य की और आ रहे हैं जो ज्वलंत समस्याओं को आधार बना कर लिख रहे हैं। -
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डॉ. चंचल भसीन
डॉ. चंचल भसीन
समकालीन परिस्थितियों को जब एक साहित्यकार अपनी कृतियों के माध्यम से व्यक्त करता है तो वे उस समय अपने वक्त का आईना होता है। ये सब हमें साहित्य से ही पता चलता है कि व्यक्ति उस समय कौन सी बुरी-भली परिस्थितियों को भोग रहा था। साहित्यकार एक सम्वेदनशील व्यक्ति है और समय की गतिविधियों से प्रभावित होकर रचना ही नहीं करता है। वे सिर्फ साहित्य की रचना ही नहीं करता बल्कि उसके निपटारे के सुझाव भी देता है। उस समय ये नहीं देखा जाता कि साहित्यकार कौन सी जाति के साथ सम्बन्ध रखता है और कौन सी जाति समस्या के साथ जूझ रही है उस समय सिर्फ उपाय तलाशने की ओर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। जैसे कि भारत देश में विभिन्न जाति के लोग मिलजुल कर संतोष के साथ रहते हैं ओर अपने देश को उन्नति की ओर ले जा रहे हैं। ऐसे ही साहित्य की संरचना में भी सभी जातियों ओर धर्मों के लोग संगठित होकर भारत को समृद्ध ओर मजबूत साहित्य देने में योगदान दे रहे हैं। चाहे वे किसी भी जात के हो। ओर साहित्यकार उसी परिस्थितियों से प्रभावित होता है जो परिस्थितियाँ समाज को नुक्सान पहुंचाती हैं और साहित्यकार का कर्तव्य बनता है कि वे उन बुरी अलामतों से लोगों को बचा कर ले जाए और ये भूमिका वे बहुत अच्छी तरह से निभाता भी है। वे चाहे किसी भी जाति या भाषा का क्यों न हो पर इस समय मैं बात उन दलित साहित्यकारों की कर रही हूँ जो डोगरी भाषा में अपनी सक्रीय भूमिका निभा कर योगदान दे रहे हैं जिन्होंने अपनी सूझ-बुझ ओर तीव्र कलम के साथ डोगरी साहित्य को समृद किया है और कर रहे हैं। ये साहित्यकार वेशक गिनती में कम होंगे पर इनका साहित्य में बहुमूल्य योगदान है ओर दूसरे साहित्यकारों के साहित्य से मुकाबला भी करता है। क्योंकि दुसरे साहित्यकार तो परिस्थितयों से प्रभावित हो कर साहित्य की सृजना करते है पर दलित साहित्यकार इन परिस्थितियों को भोगकर अपने मन के भाव व्यक्त करता है। जिस कारण दलित साहित्यकारों का साहित्य सामाजिक धरातल के साथ जुड़ा हुआ ओर उच्च श्रेणी का बनता है। डोगरी साहित्य की आज ऐसी कोई विधा नहीं है जिस में साहित्यकार अपना योगदान नहीं दे रहा। चाहे वे गद्य-विधा या पद्य विधा, उन सब में वे सक्रीय है। उनमें जिन साहित्यकारों का नाम हम बड़े गर्व के साथ ले सकतें हैं उनमें शिव राम ‘दीप’, ज्ञान चंद डोगरा, नरसिंह दास, जोगिन्दर पाल ‘जिन्दर’ कृष्ण लाल मस्त, शैलेन्द्र सिंह, डॉ. चंचल भसीन, डॉ. कुलदीप डोगरा, डॉ. मनोज हीर, डॉ. अंजू रानी, शमशेर लाल, बविता रानी, डॉ. राधा रानी, प्रदीप पंगोत्रा, आदि हैं। ये साहित्यकार हर क्षेत्र में अपना योगदान दे रहे हैं। डॉ. शिव राम दीप ने डोगरी पद्य साहित्य में अपनी श्रेष्ठ रचनाएं दी हैं जिस कारण उन्हें राज्य की कल्चरल अकादमी, ओर साहित्य अकादमी नमीं दिल्ली के अवार्ड भी मिल चुके हैं।
पत्र को आगे बढ़ाने से पहले मैं यह स्पष्ट कर देना चाहूंगी कि यह पत्र उन दलित साहित्यकारों पर आधारित है जो गद्य साहित्य में अपनी रचना पाठकों को दे रहे हैं उनमें गिरधारी लाल राही, शैलेन्द्र सिंह, डॉ. चंचल भसीन, डॉ. कुलीप डोगरा, जोगिन्दर पाल ‘जिंदर’ डॉ. राधा रानी, डॉ. अंजू रानी, डॉ. मनोज हीर, शमशेर लाल आदि है। यहां पर अब बात उन साहित्यकारों के रचित साहित्य की करना चाहूंगी। सबसे पहले गिरधारी लाल राही जो कहानीकार के रूप में अपनी प्रथम पुस्तक ‘फुल्ल ते कंड़े’ (फूल और कांटे) सन् 2015 में लेकर आए पुस्तक में कुल 21 कहानियां जो इनकी जिन्दगी के तजुरबे हैं जो पाठक को सोच में डाल देते हैं। वैसे तो जे बहुत समय से साहित्य लिख रहे हैं। पर लगातार लिखना इन्होंने सेवानिवृत होने के पश्चात ही आरम्भ किया। संग्रह की पहली कहानी ‘समाधी’ (समाधि) जिसमें कहानी की नायिका ‘वीरो’ को दुनिया के बनाए हुए कानून रास नहीं आते तो वह आत्महत्या कर लेती है क्योंकि उसे शरीर में खुजली है और बैध के कहने पर कि इन्हें कोढ़ जैसी बीमारी है और छूत की है। सबको इस से बचने के लिए निर्देश देता है यहां तक की उसे बच्चों से भी नहीं मिलने दिया जाता। पर जब वह आत्महत्या कर लेती है तो उसके पश्चात समाधि बनाकर पूजने लगते हैं। ‘हिरखै दे अत्थरूं’ (प्यार के आंसू) बेजुबान पंछी की कहानी है जिनको व्यक्ति अपने शौक के कारण बंदी बनाकर रख लेता है हर जीव-जन्तु अपने परिवार के साथ खुली फिजा में रहना चाहता है। इस दुखांत को दर्शाने के लिए कहानीकार ने एक तोते को जरिया बनाया है। ‘ओह् बावा कु’न हा’ (बाबा कौन था), जदूं जदूं बैर पक्के (जब-जब बेर पके), फुल्ल ते कंड़े (फूल और कांटे) संग्रह की शीर्षक की कहानी है जिसमें कहानीकार ने रिश्तों के बीच स्वार्थ को बहुत ही खूबसूरती से वर्णन किया है कहानी का पात्र अपने परिवार की जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते, अपने छोटे भाई-बहनों के घर बसाते-बसाते खुद शादी नहीं करता पर आखिर में सभी अपने-अपने घरों में व्यस्त हो जाते हैं तो उसे वृदाश्रम का सहारा लेना पड़ता है। ‘हासे ते अत्थ्रूरूं’ (हंसी और आंसू), ‘कांए दा आह्लडा’ (कौवे का घौंसला), ‘बक्खरे-बक्खरे रूप’ (अलग-अलग रूप), गोरख धंधा, ‘खुट्टा सिक्का’, लाड-प्यार, ओपरे-ओपरे लोग (अनजान लोग), आदि कहानियों में कहानीकार ने आम मनुष्य की बात की हुई है जो तंग-दिली समाज में अपना अस्तित्व बचाने के लिए उन शक्तियों से लद रहा है जो उसे बेहतर जीवन नहीं भोगने देते। इनकी कहानियाँ समाज से जुडी हुई हैं।
दलित साहित्यकार भी संसार की विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों के साहित्य के साथ मुकाबला कर रहे हैं जैसे जोगिन्दर पाल ‘जिन्दर’ एक नौजवान लेखक किसी ऊँचे पद पर आसीन नहीं है बल्कि एक मोची का काम करने वाला यानि जूतों की मुरम्मत करके अपनी जीविका का निर्वाह करता है। पर इन की लेखनी बहुत ही दमदार, जो जिन्दगी के तजरबों से लबालब है। ‘जिन्दर’ की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है जिस कारण इनका आज तक किसी भी विधा में कोई भी संग्रह नहीं प्रकाशित हो सका पर हर विधा में भारत के विभिन्न राज्यों से प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं में इन की रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं।
इनका साहित्य इस प्रकार है अभी ता इनकी 30-35 कहानियाँ विभिन्न पत्रिकाओं में छप चुकी हैं जैसे-आत्म-शान्ति, फुल्ल, शेख फ़क़ीर, गरीबू दी कुल्ली, केह् दा केह्, ओह्दी परिभाशा, मेद अजें भी ऐ? हिरखी पत्तर दा परता, धूं नेईं देओ, होई निं सकदा, डोगरी में बात करूँ तो मम्मी मारेगी, साढ़े शैहरै गी यू. पी. बिहार नेईं बनाओ, आम-आदमी, इक चिट्ठी तेरे नां, राजकुमार, कबेला, टाइम-पास, गंद, बीरू दी देयाली, लोक समुन्दर, दुनिया गी किश देइयै जाइए, आदि अधिक अभी बिखरी हुई पड़ी हैं जो इनके लिए इकट्ठा करना नमुमकिन है। एक आलोचक और निबंधकार के रूप में भी इनके बहुत सारें लेख पत्र-पत्रिकाओं प्रकाशित हो चुके हैं। इसके इलावा अनुवाद के क्षेत्र में भी इन्होंने काम किया है। मध्यप्रदेश के कहानीकार डॉ. गोपाल नारायण आवटे कहानी संग्रह का इन्होंने अनुवाद किया है पर आर्थिक तंगी कारण अभी तक प्रकाशित नहीं हो सका। इनको पत्रकारिता में भी रूचि है जिस कारण कई अखबारों के साथ जुड़े हुए हैं। जोगिन्दर पाल ‘जिन्दर’ की कलम एक दरिया का रूप धारण किए हुए है जो निरतर प्रवाह में बहती जा रही है।
डॉ. कुलदीप डोगरा शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं और डोगरी साहित्य को भी अपनी कलम से समृद्द कर रहे हैं। ये साहित्य की विभिन्न विधाओं में लिखते हैं जैसे कविता, गजल, गीत, कहानी और आलोचना के क्षेत्र में भी इनके आलोचनात्मक लेख प्रकाशित हो चुके हैं। इनके नाटकों पर दो लेख जैसे मोहन सिंह के नाटकों में चित्रित पात्र और सरपंच नाटक पर आलोचनात्मक लेख भी हैं ओर इनकी कहानी भी दैनिक कश्मीर टाइम्स में प्रकाशित हो चुकी है।
आज डोगरी साहित्य में बहुत से रचनाकार इस काफले में जुड़ते जा रहे हैं। जिनकी रचनाएं श्रेष्ठ और उत्तम स्तर की हैं। इसमें उपन्यासकार शैलेन्द्र सिंह जिन्होंने आम जन की समस्याओं को अपने उपन्यासों में चित्रित किया है। सन् 2010 ई. में लेखन में नये पर तजुरबें में गुढ़े नौजवान शैलेंद्र सिंह का “हाशिये पर” 161 पृष्ठों का प्रथम उपन्यास प्रकाशित हुआ जो डोगरी साहित्य विधा में आकर सम्मलित हुआ । यह एक सामाजिक-यथार्थवादी उपन्यास है जो आज के समाज की निशानदेही करता है। यह कृति इनकी पहली है। इस उपन्यास को सन् 2014 का श्री राम नाथ शास्त्री मेमोरियल अवार्ड और सन् 2014 का साहित्य अकादमी, नमीं दिल्ली द्वारा अवार्ड भी मिल चुका है। “हाशिये पर” उपन्यास का कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है जिसका अंग्रेजी में अनुवाद “Hashiye Par: For A Tree To Grow” के नाम से श्री सुमन कुमार शर्मा ने 2014 में किया और ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नमीं दिल्ली ने प्रकाशित किया। “हाशिया” नाम से हिंदी में अनुवाद इसका अनुवाद जानी मानी डोगरी- हिंदी की कवयित्री, अनुवादक, आलोचक, समीक्षक, कहानीकार, शिक्षका, डॉ. चंचल भसीन ने सन् 2017 ने किया। । इस उपन्यास का कथानक सशक्त ओर आज के समाज में लोगों के साथ होने वाली बेन्याही और वे परिवार जो रोज-ब-रोज की जिन्दगी में संघर्ष करके दो समय की रोटी का बंदोबस्त भी नहीं कर सकता है जो दिन में सौ बार अपनी परेशानियों जीता-मरता है। उसके जीवन की गाड़ी को वे गति नहीं मिलती जिससे वे काम करने के बाद चैन से सो सके। वे हर समय इस सोच में पड़ा रहता है कि अब तो मेहनत करके खा ली है। अगले पहर भी उसे नसीब हो सकेगी या नहीं? ‘हाशिया’ उपन्यास का परिवार मेहनत तो बहुत करता है पर उसको, उनकी मेहनत का मेह्न्ताता उतना नहीं मिलता जिससे वे अपनी गुजर-बसर सुचारू रूप से कर सके। इनका दूसरा उपन्यास ‘सेवाधनी’ जो पहले उपन्यास के जैसे ही समस्या प्रधान उपन्यास है। इसका कथानक 240 पृष्ठों में बाल-श्रम आधारित है। डुग्गर का पहाड़ी इलाका रामनगर की जनता गरीबी रेखा के नीचे रह रही है उसके पास अभी भी कोई ऐसा कार्य नहीं है जिससे अपना जीवन सुखी व्यतीत कर सके। सूरज की किरण तो सर्वप्रथम पड़ती है पर शिक्षा की किरण अभी भी नहीं पहुँच सकी। इसका सबसे अधिक असर आने वाली पीढ़ी पर पड़ता है जो समाज का भविष्य हैं। इस समय उनके उज्ज्वल भविष्य की ओर ध्यान होना चाहिए वहीं ये बच्चे गरीबी के चक्कर में फसे हुए, उन लोगों के हाथों चढ़े हुए है यहाँ उनके विकास की ओर ध्यान होना चाहिए। उसे समाज की किसी भी अच्छी-बुरी बात का पता ही नहीं चलता। वे किसी पर ही निर्भर है वे उनके हाथों की कठपुतली है छोटी-छोटी बातों पर उन्हें प्रताड़ना मिलती है। उपन्यासकार शैलेन्द्र सिंह अपनी अभिव्यक्ति के कारण मनुष्य ह्रदयों को छूने में सफल हुए हैं। शैलेन्द्र सिंह अपनी नौकरी की व्यस्तता के बाबजूद भी, अपनी मातृभाषा में उपन्यास लिखकर एक प्रशंसनीय कार्य किया है।
डॉ. चंचल भसीन का नाम कवयित्री, अनुवादक, आलोचक, समीक्षक, कहानीकार, के रूप में लिया जाता है। जिनकी चार पुस्तकें पाठकों के बीच आ चुकी हैं। इनकी पहली पुस्तक 2013 में ‘डोगरी उपन्यासें च वर्ग-संघर्श’ प्रकाशित हो चुकी है जिसमें डोगरी के 26 उपन्यासों का आलोचनात्मक कार्य है। जो वर्गों के आधार पर किया गया है। साहित्य अकादमी द्वारा एक परियोजना के अंतर्गत तमिल के हिंदी अनुवाद उपन्यास ‘बदलते रिश्ते’ का डोगरी में अनुवाद, डोगरी उपन्यास ‘हाशिये पर’ का हिंदी में ‘हाशिया’ नाम से अनुवाद और शैलेन्द्र सिंह का ही दूसरा उपन्यास ‘सेवाधनी’ का हिंदी अनुवाद किया हुआ है इसके साथ इनके दो संग्रह विभिन्न आलोचनात्मक लेखों पर आधारित ‘डोगरी साहित्य: केईं पक्ख’ प्रैस में और एक कविता संग्रह भी प्रैस में में है। शीघ्र ही पाठकों के समक्ष होंगे। जिसमें डोगरी, हिंदी, अंग्रेजी की पुस्तकों और लेखों का अनुवाद किया है। मणिपुरी कहानियों का अंग्रेजी से डोगरी में अनुवाद भी साहित्य अकादमी के सहजोग से किया है। डॉ. चंचल भसीन का नाम डोगरी के नामबर लेखकों में होता है। आखिर में मैं अपने इस पत्र को विराम देते हुए यही कहना चाहूँगी कि दलित साहित्यकार भी साहित्य लिखने में अपना पूरा योगदान दे रहा है। पर अपनी कुछ आर्थिक स्थिति के कारण अपने लिखित साहित्य को प्रकाशित नहीं करा पा रहा जिस कारणवश साहित्य हमारे पास नहीं पहुंच रहा। अब युवा लेखक भी साहित्य की और आ रहे हैं जो ज्वलंत समस्याओं को आधार बना कर लिख रहे हैं। -
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डॉ. चंचल भसीन