Monday, March 7, 2016

"उड़ान" ( डॉ. चंचल भसीन )

       "उड़ान"
खुले आसमान पर पंखों को फैलाती 
अपनी आग़ोश में लेने की चाह
और ऊँचा ले जाते उसे 
ऊपर-नीचे पलटे खाती 
ग़रूर में 
कईं आगे-पीछे मँडराते पंछी
पकड़ना चाहते भी  
किसी की भी पकड़ में नहीं 
पंछियों की भी होड़ 
हर एक उसका दीवाना
घूरती निगाहें 
उसकी रफ्तार 
और भी तीव्र कर देती
कुछ उसके संग खेलते 
हठखेलियां करते-करते
पर न जाने कब 
शातिर बाज़ के चंगुल में फंसकर
दीवानी हो गई
उसकी बातों के जाल
कब जकड़ गए 
समझ न सकी,
क्यों उसके पंखों को 
संबारने की बजाए 
कतरना चाहा
अपने अहम के लिए
अब यह बिलखती ज़िंदगी
उड़ना चाहती है खुले अासमान 
बिना सहारा तलाशे
पहली सी उड़ान।
   ( डॉ. चंचल भसीन )

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