Saturday, November 28, 2015

"खोज" ( डॉ. चंचल भसीन )

"खोज"
सूरज की पौ फटते ही निकल पड़ती हैं
दो आँखें 
ज़िंदगी की तलाश में 
चलते-चलते रास्ते में मिलती हैं
दो टाँगें, चार टाँगें, छे, आठ, दस-बेशुमार 
एक-दूसरे को रौंदती 
फाँदती, 
आगे बढ़ती
पीछे पछाड़ती 
किसी का इंतज़ार नहीं 
कहाँ जा रही हैं?
इस होड़ में 
आगे बढ़ने पर भी 
सब मिलने पर भी
संतुष्ट नहीं 
फिर भी सभी होड़ में।
दूसरी ओर सिसकती ज़िंदगी 
सहारे पर पलती 
आँखों में इंतज़ार 
उन हाथों का
सहारे का 
किसी के आने का
निहारती
अंबर ताकती
बिलखती-तड़पती 
हाथों की ढेडी लकीरों में ढूँढती 
सुकून की राहें 
न मिलने पर 
उसे कोसती
कराहती
बेबसी दर्शाती 
सब देखते 
दुखी मन
फिर लौट आती शाम ढलते
एक नए कल के लिए।
          ( डॉ. चंचल भसीन )

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