नन्ही कली (डॉ चंचल भसीन) रीता आज पूरी रात सो नहीं पाई थी और न जाने कब थोड़ी देर के लिए आँखों ने झपकी ले ली। पर अचानक उसकी नींद खुल गई। हडबडाहट से वह उठ गई। उसके कानों में माँ- माँ की आवाज गूंज रही थी कि यह कैसी आवाज है। अचानक उसे ऐसा लगा कि किसी ने अपने कोमल से पोरों से उस के मुंह को छुआ हो।
जैसे कह रही हो माँ मेरा कसूर तो बताया होता? मेरी आँखें खुलने से पहले पहले ही
तूने बंद करा दी। मैं भी अपने भाई मुन्ने के साथ खेलना चाहती थी। क्यूँ नहीं, मुझे
अपने आंगन में खेलने दिया? अगर मैं तेरे आंगन में आती तो तेरे घर की शोभा ही बढती, माँ। मेरी तोतली बातों से पूरा घर गूंज उठता। माँ यह
किस ने तेरे मन में बहम भर दिया कि मेरे आने से घर की रोनक चली जाएगी और तू कर्जे
तले दब जाएगी। क्या इसलिए तूने मुझे ही दबा दिया। इन बातों के जाल में फंसी ही थी कि इतने में संजीव ने रीता को आबाज लगाई। क्या, आज उठना नही है? रीता-हाँ,
उठ ही रही हूँ। वैसे भी आज में पूरी रात सो नहीं पाई हूँ। संजीव- क्यूँ ? रीता- पता नहीं थोड़े दिनों से मुझे बड़े
अजीब से सपने आ रहे हैं। मुझे कोई जोर-जोर से आवाज़ें लगाती है। संजीव-वहम का कोई इलाज नहीं है। ऐसा
कुछ नहीं है. जा, और मुझे जल्दी से एक कप चाय बना कर ला दे। रीता रसोई में जैसे जाने लगी तो अचानक उसे चक्कर आ गया और वह वही पर गिर गई।
संजीव उसे फटाफट हस्पताल ले गया। उसे जब होश आया तो उसने अपने-आप को हस्पताल के
बैड पर पाया। लेटी-लेटी रीता सोचने लगी कि जब वह पिछली बार इसी हस्पताल में आई थी। उसे सब ने जोर दे कर कहा था कि कोख
में पलने वाले बच्चे को ख़त्म करवा दे क्योंकि वे लड़का नहीं, लड़की थी। सास तो सास तब संजीव भी यही चाहता
था कि लड़का ही हो, जिससे लडकों की जोड़ी बन जाएगी। रीता की तब किसी ने नहीं सुनी। उसे यह सब जबरदस्ती ही कराना पड़ा था। क्योंकि तब सभी एक
तरफ थे। वह नहीं चाहती थी कि वह ह्त्या करके जोडी बनाए। हस्पताल से जाने के बाद उसका मन किसी भी काम में नहीं लगता था। वह सारा दिन
इसी उधेड़-बुन में लगी रहती थी कि उसने एक बाल-हत्या कि है। रीता के उदास रहने से
उसकी हालत ऐसी हो गई कि वह दिन-ब-दिन कमजोर होने लगी। कुछ भी पचता नहीं। सास ने उसे बहुत
झाड़-फूंक भी करवाए। कहीं भी कोई बताता कि वहां पर सैयद-फकीर, वैद्य है वहीं पर उसे
लेकर चली जाती। पर रीता की हालत वहीं की वहीं ही थी। कोई फर्क नही पड़ रहा था। रीता
हमेशा बैठी-बैठी हडबडाती रहती। जमीन पर हाथ मारती रहती, न तो उसे कपड़ो की परवाह और
न ही खाने-पीने की होश थी। वह पागलपन में
एक कमरे-से-दूसरे कमरे में फिरती और रोती थी। रीता की इस हालत से संजीव भी काफी
परेशान था। सारा दिन ऑफिस में माथापच्ची के बाद जब घर लोटता तो रीता की हालत देखकर
और ज्यादा दुखी हो जाता। संजीव के दोस्त मोहन ने रीता को मनोचिकित्सक डॉक्टर को
दिखाने की सलाह दी। वही बात उसने अपनी माँ को आकर बताई। माँ-बेटा मैं तो चाहती हूँ कि तेरा घर फूले-फले जैसे तुझे अच्छा लगता है वैसे
ही कर। पहले भी हमने अच्छे के लिए किया था पर वह उल्ट ही हो गया। संजीव-ठीक है माँ, फिर मैं कल उसे डॉक्टर के पास ले जाऊंगा। दूसरे दिन संजीव रीता को लेकर डॉक्टर के पास गया। डॉक्टर ने सारी बात सुनने के
बाद उन्हें सलाह दी कि कहीं से उसे छोटी बच्ची लाकर दे दो। संजीव असमंजस में पड़
गया कि इतनी जल्दी यह सब कैसे होगा फिर अचानक उसके मन में ध्यान आया कि अनाथाश्रम
से किसी बच्ची को गोद में ले लेगा। उसने ऐसा ही किया। एक साल की बच्ची को गोद में
ले लिया। कुछ दिनों में ही रीता के चेहरे पर रंगत आ गई। अब वह
सारा दिन बच्ची के साथ खेलती रहती, उसे दिन और रात का पता ही नहीं चलता। उसके दिन
ख़ुशी-ख़ुशी व्यतीत होने लगे। घर का वातावरण भी शांत और खुशनुमा हो गया। ------------------------------------- डॉ . चंचल भसीन लेक्चरर डोगरी
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