मत इतराह इतना अपनी बुलंदी से,
कि वक़्त तुम्हारा है,
हमने तो हाथों की बंद मुट्ठी से,
वक़्त को फिसलते देखा है।
समुंद्र की लहरों को चीरने वालों को,
किनारों में डूबते देखा है।
दूसरों का सहारा वनने वालों को ही
बे-सहारा होते देखा है।
खुल जाते है क़िस्मत के बंद दरवाज़े,
क़िस्मत को भी बदलते देखा है।
( डॉ. चंचल भसीन )
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