ज़िंदा होने का एहसास होना चाहिए
जिस कारण लिखने लगती हूँ
मनुष्य पर श्रृंगारिक कविता
छल-कपट, झूठ-जूठ, मार-कटाई,
हिंसा-भ्रष्टाचार से जो भरपूर है
बहुत अच्छा लगता है
दिखने में
सबको अपनी ओर अकर्षित करता है
मनमोहक
अपने आस-पास बिठाए रखता है
जब उसका चेहरा उतारती हूँ
पन्नों पर
सभी ख़ूबियों के साथ
ख़ूबसूरत उतरता है
सफ़ेदपोश बड़े ख़ुश होते हैं
हाथों को उछाल-उछाल कर
वाह-वाही करते हैं
पर पता नहीं चलता
कब और क्यों?
मेरी क़लम को क़ैद करके
सारी स्याही पन्नों पर उडेल दी जाती है।
जिसे देखकर बड़ी घुटन महसूसती हूँ
कि यही तो है वो चेहरा
फिर मानते क्यूँ नहीं ?
( डॉ. चंचल भसीन )
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